ADIVASI DUNIYA : आदिवासी होना केवल एक पहचान या प्रमाण-पत्र का विषय नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण जीवनदर्शन है। आदिवासियत प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व, सामूहिकता, सादगी और संतुलन की सीख देती है। हमारे पूर्वजों ने जंगल, जल, जमीन और पर्वतों को केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवंत सत्ता माना। जन्म से लेकर मृत्यु तक की हर रस्म, हर परंपरा और हर उत्सव इसी जीवनदर्शन से जुड़ा है। आदिवासी संस्कृति हमें सिखाती है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसका रक्षक है। इसी मूल भाव को जीवित रखना हमारी असली पहचान है।
आदि संस्कृति: पूजा-पद्धति नहीं, जीवनशैली
आदि संस्कृति किसी एक विशेष पूजन-पद्धति तक सीमित नहीं है। यह हमारी दिनचर्या, हमारे रिश्ते, हमारे गीत-संगीत, नृत्य, पर्व-त्योहार और सामाजिक व्यवस्था में रची-बसी है। सिंगबोगा, दिरि-दारू, बुरू-गाड़ा, ओते-हासा जैसे पवित्र स्थल और जाहेर ऐरा, मरंग बुरू, देशाउलि जैसी आस्थाएँ हमें प्रकृति से जोड़ती हैं। ये प्रतीक हमें याद दिलाते हैं कि जीवन का हर क्षण पवित्र है और हर कर्म का प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि हमारी परंपराएँ संतुलन और सामंजस्य का मार्ग दिखाती हैं।
स्वेच्छा से घर वापसी: खुले दिल और खुले द्वार
जो आदिवासी भाई-बहन किसी भी कारणवश अन्य धर्मों में चले गए थे, उनके लिए आज घर के द्वार खुले हैं। यह आह्वान किसी दबाव या विरोध का नहीं, बल्कि आत्मीयता और अपनत्व का है। “घर वापसी” का अर्थ है-अपनी जड़ों से पुनः जुड़ना, अपनी भाषा, परंपरा और सामूहिक पहचान को फिर से अपनाना। यह प्रक्रिया स्वेच्छा, सम्मान और संवाद पर आधारित है। समाज का यह संदेश स्पष्ट है कि हर परिवार का स्वागत खुले दिल से किया जाएगा, बिना किसी भेदभाव के।
बदलती परिस्थितियां: सहयोग, शिक्षा और अवसर
यह सच है कि बीते वर्षों में आदिवासी समाज ने अनेक कठिनाइयाँ झेली हैं—शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के मोर्चे पर। इन्हीं चुनौतियों के कारण कई परिवारों ने कठिन निर्णय लिए। आज परिस्थितियाँ बदल रही हैं। समाज के भीतर सहयोग की नई संरचनाएँ बन रही हैं। शिक्षा के अवसर बढ़ रहे हैं, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच सुधर रही है और रोजगार के नए मार्ग खुल रहे हैं। सामूहिक प्रयासों से समस्याओं का समाधान खोजा जा रहा है। यह विश्वास मजबूत हो रहा है कि आदिवासी समाज अपने हर सदस्य के साथ खड़ा है।
धरती आबा का मार्ग: आत्मसम्मान और स्वाधीनता
धरती आबा बिरसा मुंडा ने बाहरी प्रभुत्व और सांस्कृतिक विघटन का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि वे जानते थे कि जड़ों से कटकर कोई समाज मजबूत नहीं रह सकता। उनका संघर्ष आत्मसम्मान, स्वाधीनता और सांस्कृतिक संरक्षण का प्रतीक है। आज उनके दिखाए मार्ग पर चलना केवल इतिहास को याद करना नहीं, बल्कि भविष्य को दिशा देना है। “घर वापसी” उसी चेतना का विस्तार है—जहाँ आदिवासी परिवार अपनी मूल संस्कृति में लौटकर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते हैं।
झारखंड के कई जिलों में पिछुआ हवाओं के कारण ठंड में तेज बढ़ोतरी हुई है, जिससे तापमान में गिरावट दर्ज की गई है। मौसम विज्ञान केंद्र रांची के अनुसार, पिछुआ हवाएं उत्तर से उत्तर-पश्चिम दिशा से चल रही हैं, जिनके कारण न्यूनतम तापमान में लगभग चार डिग्री सेल्सियस तक की गिरावट आई है। राजधानी रांची सहित आसपास के क्षेत्रों में सुबह का तापमान करीब 10 डिग्री सेल्सियस के आसपास है, जिससे सुबह के समय काफी ठंडक बढ़ गई है। इस वर्ष सर्दी ने अपनी दस्तक समय से पहले दे दी है, क्योंकि मौसम विभाग ने पहले ही नवंबर के अंत से ठंड बढ़ने की चेतावनी दी थी। रातों में तापमान करीब 9 डिग्री तक गिर जाता है, जिससे पूरे क्षेत्र में ठंड का असर महसूस किया जा रहा है। राज्य के अधिकांश जिलों में मंगलवार को मौसम साफ और शुष्क रहा और मध्यम तेजी से हवा चली, जिससे ठंडी हवा का अनुभव हुआ। पिछले 24 घंटों में गोड्डा जिले में अधिकतम तापमान 28.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जबकि गुमला में न्यूनतम तापमान 8.8 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड हुआ। रांची में अधिकतम तापमान 24.6 और न्यूनतम 11.1 डिग्री सेल्सियस रहा। कृषि विज्ञान केंद्र ने किसानों को सलाह दी है कि इस ठंड में फसलों की सुरक्षा के लिए सिंचाई का विशेष ख्याल रखा जाए ताकि वे प्रभावित न हों। मौसम विभाग ने सूचना दी है कि बंगाल की खाड़ी में दबाव का क्षेत्र बन रहा है, जिससे चक्रवात बनने की संभावना है। यह चक्रवात झारखंड सहित आसपास के क्षेत्रों के मौसम पर असर डाल सकता है। इस कारण अगले दो दिनों में तापमान में और गिरावट आने की संभावना है और बारिश या तेज हवाओं के चलते खेल आयोजन प्रभावित हो सकता है।राजधानी रांची सहित अन्य जिलों में पछुआ हवाओं के कारण कनकनी बढ़ गई है, जिससे सुबह और शाम की ठंड अधिक महसूस होती है।
Adivasi food: झारखंड के रांची, खूंटी, गुमला, सिमडेगा और पश्चिमी सिंहभूम जैसे जिलों में पाई जाने वाली यह परंपरा संथाल, हो, ओरांव और मुंडा जैसे आदिवासी समुदायों की सदियों पुरानी जीवनशैली का अहम हिस्सा रही है। जंगलों से गहरा रिश्ता रखने वाले ये समुदाय प्राकृतिक संसाधनों को भोजन और औषधि के रूप में उपयोग करते आए हैं। सर्दियों के मौसम में यह पारंपरिक खाद्य पदार्थ पारिवारिक भोज का विशेष हिस्सा बन जाता है और इसे प्यार से “जंगल का तोहफा” कहा जाता है। यह सिर्फ भोजन ही नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति सम्मान और संतुलित जीवनशैली का प्रतीक भी है। ओडिशा में इसे भौगोलिक संकेत (GI Tag) मिल चुका है, जिससे इसकी विशिष्टता और पारंपरिक महत्व को आधिकारिक मान्यता मिलती है। सेहत का प्राकृतिक कवच: ठंड से लेकर इम्युनिटी तक सर्दियों में इसका सेवन शरीर को अंदर से गर्म रखता है और ठंड व सर्दी-जुकाम से बचाव में सहायक माना जाता है। यह भूख बढ़ाने में भी मदद करती है, जिससे शरीर को भरपूर पोषण मिलता है। स्थानीय लोग मानते हैं कि यह प्राकृतिक इम्युनिटी बूस्टर की तरह काम करती है और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाती है। इसके नियमित सेवन से हड्डियाँ और मांसपेशियाँ मजबूत होती हैं, जिससे शारीरिक कमजोरी दूर होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे पारंपरिक घरेलू औषधि के रूप में भी अपनाया जाता है, खासकर बदलते मौसम में होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए। रोगों से लड़ने में सहायक और बढ़ती लोकप्रियता आदिवासी समाज में यह धारणा प्रचलित है कि यह प्राकृतिक खाद्य पदार्थ कई तरह की बीमारियों में राहत पहुँचा सकता है। कोरोना, मलेरिया, पीलिया, बुखार, एनीमिया, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग और यहाँ तक कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से लड़ने में इसे सहायक माना जाता है। परंपरागत विश्वासों के अनुसार, चींटियों के काटने से होने वाले बुखार में भी यह लाभकारी हो सकता है। इसके अलावा, वजन बढ़ाने, पाचन तंत्र को मजबूत करने और शरीर को डिटॉक्स करने में इसकी भूमिका बताई जाती है। आजकल शहरी क्षेत्रों में भी लोग इसे स्वास्थ्यवर्धक सुपरफूड के रूप में अपनाने लगे हैं, जिससे यह ग्रामीण और आदिवासी सीमाओं से बाहर निकलकर व्यापक पहचान बना रहा है।
जमशेदपुर: बिष्टुपुर स्थित गोपाल मैदान में बुधवार को रंगारंग सांस्कृतिक प्रस्तुति के साथ संवाद-ए ट्राइबल कॉन्क्लेव का समापन हुआ. इस पांच दिवसीय आयोजन के अंतिम दिन शाम को नागपुरी, संताली और जनजातीय लोकगीतों की गूंज के साथ पूरा मैदान झूम उठा. देश के विभिन्न राज्यों से आये कलाकारों ने अपने लोक संगीत और नृत्य से जनजातीय संस्कृति की विविधता का परिचय कराया. नागपुरी गायक अर्जुन लकड़ा और गायिका गरिमा एक्का ने संवाद अखड़ा मंच को संभाला. जैसे ही अर्जुन लकड़ा संवाद अखड़ा मंच पर पहुंचे, युवाओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी. दर्शकों ने उनकी पसंदीदा गीतों की फरमाइश शुरू कर दी. लकड़ा ने अपने ट्रेडिंग गीतों की प्रस्तुति देकर माहौल को जोश से भर दिया. उनका गायकी का अंदाज और स्टेज कवरिंग शैली दर्शकों को थिरकने पर मजबूर कर रही थी. इसके बाद संताली गायिका कल्पना हांसदा ने अपनी मधुर आवाज में पारंपरिक व मॉडर्न गीत प्रस्तुत कर श्रोताओं का दिल जीत लिया. उनके गीतों की धुन पर युवाओं ने मैदान में समूह बनाकर नृत्य किया. रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधानों में सजे युवाओं ने एक-दूसरे का हाथ थाम लोकनृत्य की लय पर झूमकर ट्राइबल संस्कृति की जीवंत छटा बिखेर दी. जनजातीय संगीत पर मंत्रमुग्ध हुए दर्शक कार्यक्रम में सैकड़ों की संख्या में स्थानीय लोग और युवा उपस्थित थे. हर गीत, हर प्रस्तुति पर तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रही. युवाओं ने अपने मोबाइल से वीडियो बनाकर इस सांस्कृतिक माहौल को कैद किया. सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि मेघालय, सिक्किम, नागालैंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ से आये कलाकारों ने भी अपनी पारंपरिक कला का प्रदर्शन कर खूब वाहवाही बटोरी. संवाद अखड़ा के मंच पर इन कलाकारों ने लोकनृत्य, पुनर्जीवित रिवाजों और जनजातीय संगीत के सुरों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. कार्यक्रम समापन की यह शाम सांस्कृतिक विविधता का उत्सव बना. लौहनगरी जमशेदपुर की धरती पर कलाकारों ने एकता और कला के नये रंग भी बिखेरा. स्टॉलों से एक करोड़ से अधिकार का हुआ कारोबार संवाद-ए ट्राइबल कॉन्क्लेव में जनजातीय व्यंजनों के स्टॉल समेत कला और हस्तशिल्प व पारंपरिक उपचार के स्टॉल्स के कई स्टॉल भी लगाये थे. जहां शहर समेत कोल्हान के विभिन्न जगहों से आये लोगों ने जमकर खरीदारी भी की. टीएसएफ के रिपोर्ट के मुताबिक इसबार संवाद-ए ट्राइबल कॉन्क्लेव में एक करोड़ से अधिक का कारोबार हुआ है. इससे यह बात साबित होती है कि जनजातीय समाज की वस्तुएं अब ब्रांड बन चुकी हैं. जिसे आदिवासी ही नहीं अन्य समाज व समुदाय के लोग भी खूब पसंद कर रहे हैं. संवाद फेलोशिप के लिए नौ फेलो का किया चयन टाटा स्टील फाउंडेशन ने संवाद फेलोशिप 2025 के लिए 9 फेलो के चयन की भी घोषणा की. इनका चयन 572 आवेदनों में से किया गया, जो 25 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों की 122 जनजातियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. जिनमें विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों से 10 आवेदक शामिल थे. फाउंडेशन ने पिछली कई फेलोशिप परियोजनाओं के पूरा होने का भी जश्न मनाया.
FILM FESTIVAL: श्रीनाथ यूनिवर्सिटी के प्रेक्षागृह में सोमवार को झारखंड राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव – 2025 (छठा संस्करण) का शुभारंभ बेहद गरिमामय और उत्साहपूर्ण वातावरण में हुआ। फ़िल्म और कला जगत से जुड़े अनेक गणमान्यों की उपस्थिति ने उद्घाटन समारोह को खास बना दिया। मुख्य अतिथि के रूप में आदित्यपुर नगर निगम की उपनगर आयुक्त परुल सिंह तथा सह मुख्य अतिथि के रूप में श्रीनाथ यूनिवर्सिटी के कुलपति सुखदेव महतो ने समारोह की शोभा बढ़ाई। विशिष्ट सम्मानित अतिथियों में डॉ. जे.एन. दास,डॉ ज्योति सिंह, पूरबी घोष, पवन कुमार साव, चंचल भाटिया, नेहा तिवार, ज्योति सेनापति, पूर्व वार्ड पार्षद नीतू शर्मा शामिल रहे। समारोह की शुरुआत परिचय और स्वागत के साथ हुई। तत्पश्चात अतिथियों ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्वलित कर महोत्सव का उद्घाटन किया। इसके बाद सांस्कृतिक टीम द्वारा प्रस्तुत आकर्षक स्वागत नृत्य ने मंच का माहौल जीवंत कर दिया। JNFF के संस्थापक संजय सतपथी और राजू मित्रा ने स्वागत भाषण में महोत्सव की यात्रा, उद्देश्य और झारखंड में फ़िल्म संस्कृति के विस्तार पर प्रकाश डाला। मुख्य अतिथियों एवं विशिष्ट अतिथियों को पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया गया। सभी मान्यवरों ने अपने प्रेरक संबोधन से कार्यक्रम की गरिमा को नई ऊँचाई दी। मंचीय कार्यक्रम के दौरान लोकप्रिय शॉर्ट फ़िल्म “Silk Coffin” की विशेष स्क्रीनिंग की गई, जिसे दर्शकों ने विशेष प्रशंसा दी। महोत्सव को सफल बनाने में संस्थापकों के साथ-साथ क्रिएटिव डायरेक्टर शिवांगी सिंह,डॉ. शालिनी प्रसाद का रचनात्मक नेतृत्व अत्यंत प्रभावी रहा। झारखंड राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव 08 से 13 दिसंबर तक आयोजित होगा। 09 से 12 दिसंबर तक विभिन्न श्रेणियों की फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा, जबकि 13 दिसंबर को समापन एवं पुरस्कार समारोह (Award Night) XLRI, जमशेदपुर में होगा।
जमशेदपुर: राज्यभर के झारखंड आंदोलनकारी सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और अधिकारों के मुद्दे पर एकजुट हो रहे हैं. इसी मुद्दे को लेकर ‘झारखंड आंदोलनकारी सेनानी समन्वय आह्वान’ ने 22 नवंबर को बाबा तिलका माझी क्लब, फुलडुंगरी, घाटशिला में एक बैठक बुलाया गया है. आयोजन समिति के प्रो. श्याम मुर्मू, संतोष सोरेन, आदित्य प्रधान, सुराई बास्के व अजीत तिर्की ने संयुक्त रूप से बताया कि वर्तमान सामाजिक सुरक्षा नीति सीमित होने के कारण हजारों आंदोलनकारी विशेषकर वे जो जेल नहीं गये थे, पर आंदोलन में उनका सक्रिय भूमिका रहा है. लेकिन वे आज भी पेंशन, स्वास्थ्य सुरक्षा और सम्मानजनक जीवन से वंचित है. इस स्थिति में अब एक मजबूत संयुक्त मंच की आवश्यकता महसूस की जा रही है. ताकि आंदोलन मजबूती के साथ अपनी मांगों को सरकार के सामने रख सके. उन्होंने सभी आंदोलनकारियों से अपील किया है कि वे उक्त बैठक में आवश्यक रूप से भाग ले. ये हैं प्रमुख मांगें -सभी आंदोलनकारियों को समान सामाजिक सुरक्षा एवं प्रशस्ति पत्र दिया जाये -पेंशन में उचित वृद्धि तथा नियमित भुगतान किया जाये -आंदोलनकारियों को स्वास्थ्य बीमा की सुविधा प्रदान की जाये -आंदोलनकारियों के आश्रितों को सरकारी नौकरी में प्राथमिकता दिया जाये -झारखंड आंदोलनकारी संग्रहालय सह स्मारक का निर्माण कराया जाये -झारखंड आंदोलनकारी आयोग का पुनर्गठन किया जाये
ADIVASI DUNIYA : आदिवासी होना केवल एक पहचान या प्रमाण-पत्र का विषय नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण जीवनदर्शन है। आदिवासियत प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व, सामूहिकता, सादगी और संतुलन की सीख देती है। हमारे पूर्वजों ने जंगल, जल, जमीन और पर्वतों को केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवंत सत्ता माना। जन्म से लेकर मृत्यु तक की हर रस्म, हर परंपरा और हर उत्सव इसी जीवनदर्शन से जुड़ा है। आदिवासी संस्कृति हमें सिखाती है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसका रक्षक है। इसी मूल भाव को जीवित रखना हमारी असली पहचान है। आदि संस्कृति: पूजा-पद्धति नहीं, जीवनशैली आदि संस्कृति किसी एक विशेष पूजन-पद्धति तक सीमित नहीं है। यह हमारी दिनचर्या, हमारे रिश्ते, हमारे गीत-संगीत, नृत्य, पर्व-त्योहार और सामाजिक व्यवस्था में रची-बसी है। सिंगबोगा, दिरि-दारू, बुरू-गाड़ा, ओते-हासा जैसे पवित्र स्थल और जाहेर ऐरा, मरंग बुरू, देशाउलि जैसी आस्थाएँ हमें प्रकृति से जोड़ती हैं। ये प्रतीक हमें याद दिलाते हैं कि जीवन का हर क्षण पवित्र है और हर कर्म का प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि हमारी परंपराएँ संतुलन और सामंजस्य का मार्ग दिखाती हैं। स्वेच्छा से घर वापसी: खुले दिल और खुले द्वार जो आदिवासी भाई-बहन किसी भी कारणवश अन्य धर्मों में चले गए थे, उनके लिए आज घर के द्वार खुले हैं। यह आह्वान किसी दबाव या विरोध का नहीं, बल्कि आत्मीयता और अपनत्व का है। “घर वापसी” का अर्थ है-अपनी जड़ों से पुनः जुड़ना, अपनी भाषा, परंपरा और सामूहिक पहचान को फिर से अपनाना। यह प्रक्रिया स्वेच्छा, सम्मान और संवाद पर आधारित है। समाज का यह संदेश स्पष्ट है कि हर परिवार का स्वागत खुले दिल से किया जाएगा, बिना किसी भेदभाव के। बदलती परिस्थितियां: सहयोग, शिक्षा और अवसर यह सच है कि बीते वर्षों में आदिवासी समाज ने अनेक कठिनाइयाँ झेली हैं—शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के मोर्चे पर। इन्हीं चुनौतियों के कारण कई परिवारों ने कठिन निर्णय लिए। आज परिस्थितियाँ बदल रही हैं। समाज के भीतर सहयोग की नई संरचनाएँ बन रही हैं। शिक्षा के अवसर बढ़ रहे हैं, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच सुधर रही है और रोजगार के नए मार्ग खुल रहे हैं। सामूहिक प्रयासों से समस्याओं का समाधान खोजा जा रहा है। यह विश्वास मजबूत हो रहा है कि आदिवासी समाज अपने हर सदस्य के साथ खड़ा है। धरती आबा का मार्ग: आत्मसम्मान और स्वाधीनता धरती आबा बिरसा मुंडा ने बाहरी प्रभुत्व और सांस्कृतिक विघटन का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि वे जानते थे कि जड़ों से कटकर कोई समाज मजबूत नहीं रह सकता। उनका संघर्ष आत्मसम्मान, स्वाधीनता और सांस्कृतिक संरक्षण का प्रतीक है। आज उनके दिखाए मार्ग पर चलना केवल इतिहास को याद करना नहीं, बल्कि भविष्य को दिशा देना है। “घर वापसी” उसी चेतना का विस्तार है—जहाँ आदिवासी परिवार अपनी मूल संस्कृति में लौटकर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते हैं।
Tribal lifestyle आधुनिक भागदौड़ और उपभोक्तावादी जीवनशैली के बीच आदिवासी समाज की सरल, संतुलित और प्रकृति-केंद्रित जीवनशैली आज पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा बनती जा रही है। सदियों से जंगल, पहाड़, नदी और जमीन से जुड़ी उनकी परंपराएँ न केवल पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती हैं, बल्कि सामाजिक समरसता का भी सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि आदिवासी जीवनशैली के मूल्यों को समाज के हर वर्ग तक पहुंचाया जाए। प्रकृति के साथ सामंजस्य का जीवन दर्शन आदिवासी समुदाय हमेशा से प्रकृति को केवल संसाधन नहीं, बल्कि माता के रूप में देखते आए हैं। पेड़ काटने से पहले पूजा, नदी और पहाड़ों को देवता के समान मानने की परंपरा उनके गहरे पर्यावरणीय चेतना को दर्शाती है। वे जरूरत भर का ही उपभोग करने में विश्वास रखते हैं, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का संतुलन बना रहता है। आज जब दुनिया जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की गंभीर समस्या से जूझ रही है, तब आदिवासी समाज की यह सोच अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है। सामूहिकता और समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था आदिवासी जीवनशैली की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सामूहिक जीवन व्यवस्था। गांव के हर व्यक्ति को समान सम्मान देने की परंपरा, मिल-जुलकर काम करना और सुख-दुःख में साथ खड़े रहना उनकी पहचान है। उनके समाज में प्रतियोगिता से अधिक सहयोग की भावना देखने को मिलती है। विवाह, त्योहार, खेती और सामुदायिक कार्यक्रमों में पूरा गांव एक परिवार की तरह भागीदारी निभाता है। आज के समय में जब समाज तेजी से व्यक्तिगत स्वार्थ की ओर बढ़ रहा है, तब आदिवासी समुदाय का यह सामूहिक दृष्टिकोण समाज को नई दिशा देने की क्षमता रखता है। सरल जीवन, उच्च विचार का व्यावहारिक उदाहरण आदिवासी समाज “कम में संतोष” की भावना को अपने जीवन में सहज रूप से अपनाता है। साधारण वस्त्र, स्थानीय भोजन और प्राकृतिक औषधियों के प्रयोग से वे तन और मन दोनों को स्वस्थ रखते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं की दौड़ से दूर रहकर वे मानसिक संतुलन बनाए रखते हैं। आज के शहरी जीवन में बढ़ता तनाव, अवसाद और अकेलापन इस बात का प्रमाण है कि समाज को फिर से सादगी और संतुलन की ओर लौटने की जरूरत है, जैसा कि आदिवासी समाज सदियों से करता आ रहा है। आधुनिक समाज के लिए सीख और अपनाने की जरूरत विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि अगर आधुनिक समाज आदिवासी जीवनशैली के मूल तत्वों को अपनाए, तो कई सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान संभव है। जल संरक्षण, वनों की रक्षा, जैविक खेती और सामुदायिक सहयोग जैसे सिद्धांत आज की चुनौतियों का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। जरूरत इस बात की है कि नीति-निर्माता, शिक्षण संस्थान और समाज के जागरूक वर्ग इस जीवनदृष्टि को केवल सराहें ही नहीं, बल्कि अपने व्यवहार में भी शामिल करें, ताकि आने वाली पीढ़ियों को एक संतुलित और स्वस्थ संसार मिल सके।
जमशेदपुर: बारीडीह चौक में बिरसा सेना के केंद्रीय अध्यक्ष दिनकर कच्छप की अगुवाई में वीर शहीद कोंका करमाली को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि दी गयी है. संगठन के सदस्यों व स्थानीय युवाओं ने उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर उन्हें नमन किया. श्री कच्छप ने कहा कि आदिवासी-मूलवासी समाज के लोगों को अपने महापुरूषों के इतिहास को जानने व समझने का प्रयास करना चाहिए. उन्होंने जल, जंगल व जमीन की बचाये रखने के लिए आंदोलन कर अपने प्राणों की आहुति दी. लेकिन वर्तमान समय में आदिवासी-मूलवासियों का जमीन सुरक्षित नहीं है. उन्हें उनके जमीन से बेदखल किया जा रहा है. इसलिए अपनी अस्तित्व की रक्षा के लिए तमाम आदिवासी व मूलवासी को एकजुट होने की जरूरत है. इस अवसर पर गोपाल लोहार, अनमोल पात्रो, अंकित कुमार, अंता टुडू, समीर पाड़ेया, अखिल कच्छप, भीम राज कच्छप, ऋतिक बोयपाई, पृथ्वी सामद, राजा पूर्ति, अजय लोहार, राजू कर्मकार, महावीर लोहार, अरविंद मुखी समेत अन्य मौजूद थे.